वो लडकी

वो लडकी


दीन-दुनिया से बेफिकर, खडी जवानी की दहलीज़ पर,
वो कमसिन, वो अल्लहड़ इतराती फिरती खु़द पर
कभी तितली के पीछे भागती, सजती-संवरती
कभी फुदकती-गुनगुनाती, हर दम मुस्कुराती
वो आदिवासी लड़की, सांवली मगर
बड़ी प्यारी सी लड़की।


पेड़-पौधों से बातें करती,
दिनभर महुये बिनती
महुये में नशा उसके छूने से था
या उसमें नशा महुये का था, पता नहीं
मगर हिरणी सी चंचल,
मोरनी सी थिरकती
वो आदीवासी लडकी, सांवली मगर
बड़ी प्यारी सी लड़की।

कमसिन उम्र को उसकी मगर,
लग चुकी थी हैवानियत की नज़र
थम गयेे उसके क़दम,
स्वच्छंद उडान थम गई,
हां, था कुसूर उसका ही मगर,
के वो जवान हो गई,
वो आदीवासी लडकी, सांवली मगर
बड़ी प्यारी सी लड़की।

सब कुछ लुटाकर भी
कैसे वही गुनहगार हो गई
मां-बाप के मुह पर कालिक,
समाज का कलंक हो गई
मगर पाप से सने दरिंदे पर
उंगली न उठा कोई
वो कमसिन मगर
कैसे बदनाम हो गई
वो आदीवासी लडकी,
सांवली मगर बड़ी प्यारी सी लड़की।

कहां जाती-किसे पुकारती,
खु़द की लाज बचाने आज,
वो कृष्ण कंहा से लाती
मदद के लिये आगे हैं हाथ ,
नज़रें मगर चीर हरण करती
इस घिनौनी तस्वीर से
इंसानियत भी शर्मसार हुई
वो आदिवासी लड़की, सांवली मगर
बड़ी प्यारी सी लड़की।

विजी  अशोक , 
उच्च श्रेणी लिपिक , 
आकाशवाणी, भोपाल