मानव जीवन देव दुर्लभ कहा गया है।तो इस देव-दुर्लभ जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए या लक्ष्य क्या है।आध्यात्मिक रूप से कहें तो मोक्ष प्राप्ति और भौतिक दृष्टि से सुख प्राप्ति।लौकिक जीवन में मनुष्य सुबह से शाम तक या दिन-रात सारे क्रिया कलाप,कर्म केवल इसलिए करता है कि उसे सुख प्राप्ति हो।मोक्ष के लिए भी धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष कह कर सांसारिक सुख को मोक्ष का एक सोपान समझा गया है।मनुष्य दिन रात सुख प्राप्ति के चिंतन में ही रहता है।गृहस्थ हो या सन्यासी;लक्ष्य केवल सुख;किसी को भौतिक तो किसी को पारलौकिक।
सुख क्या है? युधिष्ठिर कहते हैं- "अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥ चाणक्य नीति कहती है "यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी।विभवे यश्च सन्तुष्टस्तस्य स्वर्ग इहैव हि।" इसी के अनुरूप लोक में मान्यता है-
पहला सुख निरोगी काया,
दूजा सुख घर में हो माया;
तीजा सुख सुलक्षण नारी,
चौथा सुख सुत आज्ञाकारी।
पाँचवां सुख हो सुन्दर वासा,
छटवां सुख हो अच्छा पासा;
साँतवां सुख हो मित्र घनेरे,
और नहीं जग दुखः बहुतेरे।
चौथे सुख तक तो प्रायः एक जैसी मान्यताएं हैं पर पांचवे,छटवें और सातवें सुख में किंचित मतान्तर है-
पंचम सुख स्वदेश में वासा,
छठवा सुख राज हो पासा;
सातवा सुख संतोषी जीवन,
ऐसा हो तो धन्य हो जीवन।
"सुलक्षण नारी " ऐसी नारी जो कुशल प्रबंधक की तरह परिवार को आदर्श परिवार बनाती है,जो माँ होती है, अच्छे संस्कारों में ढाल कर सक्षम भावी पीढ़ी तैयार करती है।
कबीर ने "जब आवै संतोष धन सब धन धूर समान।" कह कर एक ही सुख 'संतोष' को सर्वोपरि माना है,उसे जीवन का सबसे बड़ा धन कहा है।भगवान कृष्ण कहते हैं कि जिसका मन वश में है, जो राग-द्वेष से रहित है, वही सच्चे सुख का अनुभव करता है।सच है,सुख कोई बाह्य वस्तु नहीं है यह एक भावात्मक स्थिति है।मनुष्य का भावना स्तर जैसा होता है,उसी के अनुरूप उसे सुख की अनुभूति होती है।जिन मनुष्यों में उदार, दिव्य और अपरिग्रह के भाव होते हैं वे प्रायः अभावों में,विपरीत परिस्थितियों में भी सुख का अनुभव करते हैं।अस्तु,मानसिक शांति ही सुख है।एक स्थिति यह कि दुख से परे हो जाना ही सुख है। निर्धन सामान्य भोजन,सामान्य वस्त्रों में ही सुख का अनुभव करते हैं।कुछ व्यक्तियों के पास सुख के भरपूर संसाधन होते हुए भी वे सुख की अनुभूति नहीं कर पाते है,वे अशांत रहते हैं,व्यग्रता का अनुभव करते देखे जाते हैं।" लता, विटप,पुष्प को गौर से देखें; शीतल,मंद ,सुगन्धित हवा से कैसे मस्ती के आलम में दिखते हैं।इनको देखने मात्र से ही सुखानुभूति होती है।पुष्प मधुमक्खियों को अपना मकरंद देकर सुख का अनुभव करता है आशय ,परहित ही सुख है।आपकी भावात्मक स्थिति आपकी सुखानुभूति को प्रभावित भी करती है।सूर की गोपियाँ संयोग काल में जिन उपादानों से सुख पाती थीं वही उपादान उन्हें वियोग काल में विपरीत अनुभूति कराने लगते हैं-"तब ये लता लगत अति सुंदर अब भई विकट ज्वाल की भुंजें।
सुख कैसे प्राप्त हो? संस्कृत वाङ्गमय में कहा गया है "विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम् ॥" आशय यह कि विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।दोहा संग्रह कहता है-"चार वेद षट शास्त्र में, बात मिली हैं दोय ।दुख दीने दुख होत है, सुख दीने सुख होय।" गोस्वामी जी कहते हैं- " सब नर करहिं परस्पर प्रीती।चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति रीती।" इसलिए "दैहिक,दैविक,भौतिक तापा।रामराज्य नहिँ काहुहि ब्यापा।" स्पष्ट है कि सुख प्राप्ति के लिए भारतीय दृष्टि 'मैं' से इतर 'सर्व' हित पर केंद्रित रही है; "सर्वे भवन्तु सुखिनः।" मूल मंत्र रहा है।सुख देने में है;चित्त पसार कर देखें धरा देती है,आकाश देता है,बादल देते हैं,नदियाँ देती हैं,वृक्ष देते हैं,पुष्प देते हैं।यानी दोनों हाथ उलीचिये, स्वयं ही सुख की अनुभूति होगी।
मेरे एक मित्र जो हर प्रकार से साधारण स्थिति में थे उन्होंने सुखानुभूति की स्थिति कुछ यों बयां की " हम कितने सुखी हैं कि परमात्मा ने हमें इतना कुछ दिया है,दुनिया में बहुत लोग ऐसे हैं कि उन्हें इतना भी प्राप्त नहीं है।" यहाँ भी कबीर उपस्थित दिख रहे हैं।
मुझे एक संत ने कहा था ,आप कितने ही अभावों में हों नेत्र बन्द करके शांत चित्त होकर बैठ जाइए।ध्यान कीजिए सर्वत्र शून्य है,न कुछ था,न कुछ है न कुछ रहना है;आप कुछ ही क्षणों में आत्मस्थ हो जाएंगे,आपको अपार सुखानुभूति होगी यह भी कि यह स्थायी किस्म की होगी;यह वीतराग नहीं भावस्थ होना है,भावों का निर्माल्य है।
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- डॉ आर बी भण्डारकर.