जीवन एक : पहलू अनेक

                                                   * जीवन एक : पहलू अनेक *

     

        जीवन देव दुर्लभ है,जीवन उपहार है, जीवन संघर्ष है,जीवन सौंदर्य है,जीवन आस्था,विश्वास,मेल जोल और प्रेम के मधुरिम पुष्पों से सुगुम्फित हार है,जीवन आचार है ,जीवन व्यवहार है,जीवन अवसर है जीवन नश्वर है जीवन पानी केरा बुदबुदा है,जीवन सत्य है, जीवन असत्य है,जीवन प्रपंच है,जीवन एक रंगमंच है ,जीवन एक खेल है,जीवन एक रेल है,जीवन प्रकृति की जेल है।न जाने कितने कथन हैं जीवन के बारे में;कह सकते हैं जीवन जिसने जैसा जिया,



जिसने जैसा भोगा उसे वैसा ही लगा

और तदनुसार ही उसने जीवन की भावभिव्यंजना की।

       किसी को लगता है कि जीवन एक छलना है।मनुष्य संसार में आता है;रात-दिन लगा रहता है,कमाने-धमाने में या फिर पुत्र-कलत्र और तथाकथित परिजनों की चिंता में ,फिर जैसा रीता आया था वैसा ही रीता चला जाता है।कहाँ से आया था,क्यों आया था फिर कहाँ चला गया,प्रायः अधिकांश के लिए यह प्रश्न रहस्य ही बने रहते हैं।एक बार कक्षा में एक अध्यापक ने अध्ययनार्थियों से पूछा कि किसी व्यक्ति के मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर उसके परिजन क्यों रोते हैं।सबने अलग अलग ढंग से, अपनी सोच के अनुसार उत्तर दिए।अध्यापक जी कबीर- दर्शन के विद्वान थे;बोले वे रोते हैं केवल इसलिए कि सभी ने मृतक से जो मंसूबे पाल रखे थे,उनके वे मंसूबे टूट जाते हैं।

      जीवन के गूढ़ रहस्य का एक छोर भी पकड़ने में सफल हो सकें तो हम समझ सकते हैं कि जग में क्यों चोर, भ्रष्टाचारी ,व्यभिचारी लोगों का ही अधिक बोलबाला दिखता है,लगता है ये सब आराम फरमा रहे हैं और नैतिकता इनके लिए पानी भर रही है।चोर दूसरों को चोर बता रहा है,उनकी चोर प्रवृत्ति पर व्याख्यान कर रहा है,बड़ी बारीक टीका टिप्पणियाँ कर रहा है,क्यों?क्योंकि ताकि कोई उसकी चोर प्रवृत्ति को न ताड सकें।जो भ्र्ष्टाचार में आकंठ डूबा है वह भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ है दूसरों की तरफ ऊँगली उठा रहा है,उसे मालूम है कि सब उसके और  उसके आस-पास घिरी मंडली के भ्रष्टाचार से वाक़िफ़ हैं लेकिन उसे यह भी मालूम है कि लोक मर्यादा के कारण लोग कुछ नहीं कहेंगे फिर उसके पास धन की गर्मी है।एक बार किसी ने पूछा अक्ल बड़ी या भैंस?(स्पष्ट कर दूँ यहाँ भैंस धन की प्रतिनिधि है।)किसी ने उत्तर नहीं दिया तो वह  स्वयं बोला-"भैंस;आपने सुना होगा,एक धनवन्ते के आगे-पीछे सैकड़ों गुणवन्ते घूमते देखे जा सकते हैं...हा हा हा।" लौकिक रूप से यह ही सही है क्योंकि धन से वह सब कुछ खरीद सकता है सुख,सुविधा;यहाँ तक कि यश,सम्मान ,पद, प्रतिष्ठा और समर्थक भी।एक धन्वंते की प्रतिष्ठा में दर्जनों गाल बजाते दिखेंगे।आपने मर्यादा से इतर कोई आचरण किया है।अब आपको करना यह है कि मर्यादा पूर्ण आचरण और उसी के अनुसार चलने पर प्रवचन शुरू कर दीजिए सब आपकी जय जय करेंगे।आपकी मर्यादा-हीनता जानबूझ कर अनदेखी की जाने लगेगी।मन के एक कोने से प्रश्न कौंधता है,क्यों कहा जाता है-जैसी करनी तैसा फल;आज नहीं तो निश्चित कल।एक संत कहा करते थे:जीवन में कर्मफल का प्रवाह एक पाइप में प्रवाहमान द्रव्य के मानिंद मानिए।जो उसमें जिस क्रम से भरा गया है उसी क्रम से बाहर निकलेगा।सम्भव है अनैतिक कर्म के बावज़ूद  मिलने वाला अच्छा फल पाइप में प्रवाहमान पूर्व का कर्मफल हो,इसी को संचित और प्रारब्ध कहा गया है।साध्य और साधन की शुचिता के क्या मायने?वही जो हम बेच सकते हैं या बेच देते हैं।"पुत्र-कलत्र,स्वजन,बन्धु-बांधव ?क्या सब छलना है"

    ऐसे समझिए,इनमें से जिनके लिए आप पूरा जीवन होम देते हैं पर वे जीवन भर आप पर विश्वास ही नहीं करते हैं, क्यों? क्योंकि उनकी डोर कहीं और जुड़ी रहती है सो वे भी आपकी तरह ही अपने जीवन को छलना मान रहे होते हैं।कभी कभी तो वे चाह कर भी डोर का छोर छुड़ा नहीं पाते हैं 'लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि कैसे छूटै।' दाम्पत्य में एकाकार होने का भाव होता है;केवल विचार और सोच के स्तर पर ही नहीं दैहिक स्तर भी;तब ही रूप,गंध,स्पर्श आदि सब में शुभता और शुचिता होती है।पर कितने जीवन बनते हैं ऐसे अनमोल;अन्यथा तो हर स्तर पर नापसंदगी झलकती दिखती है क्योंकि एकाकारगी नहीं बन पाती है।स्वजन की स्थिति भी कुछ ऐसी ही समझिए।

जीवन का एक पहलू,इसका उल्टा भी होता है।कैसे?जिनके लिए आप कुछ नहीं करते हैं या कुछ नहीं कर पाते हैं वे अटूट रूप से आस्थावान होते हैं आपके प्रति; क्यों? क्योंकि उनकी डोर जुड़ी होती है आपसे।हाँ इन सब बातों में कुछ परिवेश के संस्कारों का भी योग रहता है और कुछ आनुवंशिकी का भी।

जीवन पर चिंतन करने वाले कहते हैं कि यह सब मोह जनित है।इस संबंध में "गीता" का सत्य परम् सार्वभौमिक और शाश्वत सार्वकालिक है-

 "क्रोधाद्भवति संमोहः            संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

 स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो  बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।"

        आशय यह कि जो मनुष्य विषयों का चिंतन करता है उसकी उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है।आसक्तिसे कामना पैदा होती है, कामना से क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोध से सम्मोह या मूढ़भाव,सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।

   लेकिन यह जीवन की खूबी ही है कि कभी कभी किसी किसी को अपना भृष्ट आचरण,अपनी अनीति, अपनी

अनैतिकता दिखती ही नहीं है।अनुमान नहीं प्रमाण है कि जिसको हमेशा से जैसा देखते रहे हैं,वही उसको उससे उलट कैसे दिख सकता है।पीनस के रोगी के लिए क्या सुगन्ध क्या दुर्गंध ! फिर दोनों ही तरफ पीनस के रोगी हों तो फिर कहना ही क्या।कभी कभी समान विचारों के लोगों में भी "परस्परम् प्रशंसन्ति अहोरूपमहोध्वनि।" की स्थिति बनती है।

         जीवन का एक अद्भुत रहस्य यह भी कि कभी कभी आप पाएंगे कि किसी का कितना ही अपमान हो जाये,जीवन में कितना ही लौकिक दण्ड मिल जाये वे उससे क्वचित भी विचलित नहीं होते हैं,हँसते हुए उसमें भी अपनी प्रशंसा की कोई कोर ढूँढ लेते हैं।कुछ लोग ऐसों को बड़ा जीवट वाला कहते हैं तो कुछ "पृष्ठ वृक्षीय" भी मानते हैं।एक अधिकारी थे,उनका कार्यक्षेत्र बड़ा विस्तृत था।एक दिन जबकि यह खाकसार भी उनके यहाँ बैठा था,फील्ड से एक कर्मचारी आया बोला कि "साहब वहाँ लोगों ने मेरे साथ मारपीट की,मेरी बहुत बेइज्जती की गई।" सामान्य मुद्रा में बैठे हुए अधिकारी महोदय ने कुछ गम्भीर मुद्रा बनाई;बड़े ही नाटकीय अंदाज़ में बोले- " मैं कखग नामक स्थान तैनात था तब एक बार लोगों ने मेरा कॉलर पकड़ लिया था,दो चार झापड़ भी रसीद किये थे पर बेइज्जती नहीं की थी।इसी प्रकार एक बार मैं जब क्षत्रज्ञ में पदस्थ था तब वहाँ मुझे लोगों ने जूतों से पीट दिया था।हाँ जूतों से पीटा तो था पर बेइज्जती नहीं की थी।अब आपकी समस्या गम्भीर है क्योंकि आपकी बेइज्जती की गई है,कुछ करना ही पड़ेगा।" वह कर्मचारी वहाँ से चुपके से खिसक लिया।बाद में वे अधिकारी हँसते हुए मुझसे बोले "सर आपने भी अनुभव किया होगा,यह व्यक्ति कितनी दारू पिये हुए था।एक्चुअली उस जगह पर कर्मचारी मिलकर दारू पीते हैं फिर आपस में लड़ाई,झगड़ा और मारपीट करते हैं।ये लोग जब भी मेरे पास शिकायत लेकर आते हैं,तो मैं यही जबाब देता हूँ,इनको।कामचोर,टके का काम नहीं करते हैं,उल्टे-पुल्टे काम करते हैं,तिस पर इज्जत का हवाला देकर यहाँ आ जाते हैं।" मैंने पाया कि सचमुच उनके चेहरे पर आक्रोश झलक आया था।

 जीवन को सुख-भोग का पर्याय माने तो पहले समझ लें कि सुख एक अनुभूति है।लोक में अलौकिक,निश्छल और सच्चा सुख बच्चों में दिखता है।एक किशोर विवाह के दो निमंत्रण पत्र लिए हुए है।पूछता है "इनमें से कौन अधिक अच्छा है?"

आपने कहा "वह जो तुम्हारे दाँये हाथ में है।"

  किशोर गदगद है;अतिशय प्रफुल्लित है,"मानों आठों सिद्धि नवों निधि कौ सुख" मिल गया है।

कारण?

  कारण यह कि वह निमन्त्रण पत्र उसकी पसन्द से खरीदा गया है।

  यौवन की दहलीज पर कदम रख रहा एक बालक किसी नामी गिरामी कम्पनी का चश्मा खरीदता है।कहता है,"कैसा लग रहा है यह?"

 "बहुत सुन्दर।"

बालक की खुशी का पारावार नहीं;संचारी भाव उछल उछल पड़ रहे हैं।"आप लगा कर देखिए।"

 "अरे,यह तो तुम युवाओं को अच्छा लगता है।"

खुशी में सरावोर नवयुवा चश्मा पहना ही देता है।"मस्त लग रहे हैं आप।"

"एक फोटो खींचता हूँ,आपकी।"

लो,यह होती है,निश्छल,निश्पृह खुशी;उसने आपको भी शामिल कर लिया अपनी खुशियों में उम्र का अंतर भुलाकर।अनजाने में ही वह जानता है कि खुशियाँ एकाकीपन में नहीं,समग्र में होती हैं।

       आशय यह कि सच में जीवन को आप जैसे देखना चाहें,उसका जैसे उपयोग करना चाहें करें।आपने अगर खूब धन जोड़ लिया है नैतिकता या अनैतिकता के सहारे,सच्चरित्र को तिलांजलि दे दी है ,भ्रष्टाचार को शिष्टाचार और जीवनाधार बना लिया

फिर उतर पड़े हैं येन केन प्रकारेण लौकिक सुख-भोग में; तो एक अलग प्रकार का सुकून देगा जीवन;मान भी,सम्मान भी और घोर समर्थन भी। तुलसी बाबा ने तो पहले ही कह दिया है-"तुलसी या संसार में भाँति भाँति के लोग।" भाँति भाँति का जीवन,भांति भाँति का जीवन के प्रति दृष्टिकोण।अब देखना आपको है कि जग में किस प्रकार के लोग प्रतिष्ठा पा रहे हैं और किस प्रकार के केवल "जंगल " योग्य रह गए हैं ,असल बात कि इस आपाधापी में आप कहाँ खड़े हैं।ऐसा क्यों? क्योंकि जीवन के बारे में कवि अवतार सिंह प्राश कुछ यों बयां करते हैं-

" सबसे खतरनाक होता है

सपनों का मर जाना।
सबसे खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्म के पूरब में चुभ जाए।"
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पता-
सी-9,स्टार होम्स
रोहितनगर फेस-2
पोस्ट ऑफिस-त्रिलंगा
भोपाल म प्र 462039


 - डॉ. आर. बी. भण्डारकर।