साइकिल - एक प्रेम कथा

साइकिल - एक प्रेम कथा

  
साइकिल और मेरा अभी तक सारी उम्र का साथ चलता रहा , कभी मजबूरी में - तो कभी शौक से। बचपन में 25 पैसे में किराए से 1 घंटे के लिए साइकिल मिला करती थी, उसी से दोस्तों ने साइकिल चलाना सिखाया।फिर जब पापा ने पहली साइकिल खरीदी तो उस पहली रात मैं ठीक से सो नहीं पाया। जब भी आंख खुलती थी , उस साइकिल को निहारते- निहारते फिर सो जाता। एक बार हमारे परिचित बगैर लॉक किए  साइकिल घर के बाहर खड़ी कर गए । तो मै लगभग दो-तीन घंटे उनकी इजाज़त के बगैर ही उनकी साइकिल यहां - वहां दौड़ाता रहा।फिर सेंधवा जैसी जगह स्कूल - कॉलेज भी कभी पैदल और कभी साइकिल से जाता रहा । मेरे एक रिश्तेदार ने भी किराए की साइकिल दुकान खोली ,तो मैं अपनी निशुल्क सेवाएं वहीं बैठकर देने लगा।हालाँकि वह स्कूल की पढ़ाई का समय था,परन्तु मुझे किताबों से ज्यादा साइकिल पर प्यार आता । लेकिन जल्दी घर वालों की डाँट- डपट ने साइकिल दुकान छुड़वा दी ।स्कूल खत्म कर इंदौर आगे की पढ़ाई के लिए आया तो वहां भी अपने निवास से कॉलेज साइकिल से ही आना - जाना होता। इंदौर वैसे भी साइकिलिंग के लिए अच्छा शहर है, क्योंकि वहां की सड़कों में ज्यादा उतार-चढ़ाव नहीं हुआ करते थे । मुझे अच्छे से याद है कि एक बार तो मैं अपने  भाई को पीछे बैठा कर सुदामा नगर से पलासिया के पास वंदना नगर एक ही दिन में 2 चक्कर लगा आया। अर्थात दिन भर में लगभग 30 किलोमीटर !!

 पढ़ाई पूरी करते-करते फाइनल ईयर में जॉब ऑफर भी मिल गई। अब अगला पड़ाव था भोपाल।
 बस से सुबह सुबह 5:00 बजे नादरा बस स्टैंड उतरा और वहां से बस की छत पर लाई गई अपनी साइकिल पर बोरिया - बिस्तर बांध गौतमनगर अपने अगले निवास स्थल आया, जहां  पहले से ही मेरे अन्य दोस्त रहते थे । अर्थात आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व भोपाल में पहली इंट्री साइकिल के साथ!!!

 कुछ समय फैक्ट्री  व गोविंदपुरा ट्रेनिंग सेंटर साइकिल से ही आता जाता रहा,परंतु अब नौकरी में पगार मिलने लगी और अपने से छोटी नौकरी वाले भी टू-व्हीलर पर  नजर आने लगे तो साइकिल से ड्यूटी आना थोड़ा नागवार गुजरने लगा। फिर भी लगभग 4 -5 साल साइकिल को ना चाहते हुए भी उसका साथ बना रहा । दूरदर्शन में नौकरी लगने के लगभग 1 साल बाद जब श्यामला हिल्स पर सरकारी आवास मिला ,तो इतनी ऊँचाई पर साईकल चलाना अब मुश्किल लगने लगा।जैसे ही  थोड़े पैसों की व्यवस्था हुई,वैसे ही  जाकर  अपना पहला स्कूटर खरीदा। बस! यहां से साइकिल पर जैसे अल्प विराम लग गया । क्योंकि स्कूटर से कार खरीदने की ओर कदम बढ़ चुके थे , तो साइकिल का ख्याल आना ही बंद हो गया । लेकिन कहते हैं ना कि पहला प्यार हमेशा मन के दरिया में हिलोरे मारता रहता है , तो ऐसा ही कुछ नया मोड़ जिंदगी में तब आया जब मेरा ट्रांसफर जगदलपुर हो गया । पहले ही दिन जॉइनिंग के लिए लगभग 6 किलोमीटर दोस्त की साइकिल उधार लेकर गया । हालाँकि दोस्त ने स्कूटर भी ऑफर किया था,परन्तु साईकल पर उमड़ता प्यार स्कूटर पर भारी पड़ा! उसी दिन मैंने पक्का इरादा कर लिया कि जगदलपुर में मशीनी वाहन नही लाऊंगा। जल्द ही एक खूबसूरत - सी पर्पल रंग की बीएसए साइकिल खरीद ली, और दैनंदिन के कार्य जैसे ऑफिस जाना,  बाजार से सामान लाना, बालाजी मंदिर और गायत्री शक्तिपीठ जाना - सबकुछ साइकिल पर । वहां के परिजनों ने कई बार कटाक्ष भी किया कि एकाध सेकंड हैंड स्कूटर ही खरीद लो ।  परंतु मैं मुस्कुरा कर उनकी बात अनसुनी कर देता ,उन्हें क्या अपने दीवानेपन की कथा कहता , जबकि उस वक्त भोपाल में स्कूटर और एक कार छोड़ कर आया था। डेढ़ - 2 साल जगदलपुर में इसी खूबसूरत साइकिल के साथ गुजरे। आते - आते फिर मन कठोर कर साईकल अपने दोस्त को दे आया । उस साइकिल पर कई अन्य लोगों की भी निगाहें थी। जिसने ज्यादा शिद्दत से उसे चाहा उसी के पास वह साइकिल अंत में पहुंच गई। 

भोपाल बगैर साइकिल के फिर लौट आया । और यह प्रेम कथा फिर एक बार ठहर गई। बेटा भी बड़ा हो चुका था , अतः उसे भी दो पहिया वाहन  ही चलाने की सलाह देता। उसके बचपन में खरीदी गई साइकिल भी उसके कद के सामने अब  बौनी नजर आने लगी थी । अतः उसे भी एक दिन कबाड़ी को बेच दी।

 इसके बाद के लगभग 13 - 14 साल साइकिल के विरह  में ही बीते ।

 फिर अचानक जैसे विरह की वेदना में व्याकुल मन पर आषाढ़ के छींटों सी  "चार्टर्ड  - बाइक" का भोपाल में लांच हुआ । इस भीनी -  भीनी बारिश की आमद से मेरा मन - मयूर नाच उठा। आनन-फानन में चार्टर्ड बाइक का ऐप डाउनलोड किया, लेकिन पता नहीं क्यों, मेरे डेबिट कार्ड से पेमेंट स्वीकार ही नहीं हो पा रहा था। 
अब तो अंतर्मन छटपटाने लगा ।

अंतोतगत्वा मैंने अपने बेटे को अपनी पीड़ा से अवगत कराया । उसने अपने क्रेडिट कार्ड से कोशिश की (अब तक बेटा इतना बड़ा हो गया था कि अपना क्रेडिट कार्ड मेंटेन कर सकें) और पेमेंट एक्सेप्ट हो गया। ज़िन्दगी ने एक चक्र पूरा किया, बचपन मे मैने उसे साईकल दिलवाई,आज उसने पैसे देकर मुझे साईकल से फिर मिलवा दिया। 

एक बार फिर हरियाली चुनर ओढ़े मेरी प्रेयसी साइकिल ने मेरी जिंदगी में सौंधी महक बिखेर दी । 
धन्यवाद नीलाभ !
 धन्यवाद "चार्टर्ड -  बाइक" !!
 मेरी जिंदगी में फिर से प्रेम लौटाने के लिए.....