नारी-एक कविता





नारी

नारी मन सुलभ चंचल,
गहराई इसकी समझ न पाया कोई,
कभी करुणामयी माँ का रूप धरती,
कभी प्रियतमा बनकर सुकून पहुचती,
कही सुखद संसार की आधार रखती,
कही संसार की विनाश का कारण बनती,
इसकी क्रिया चरित के सामने देवताओ ने हार मानी।

कभी मेनका का रूप धरती,
कही सीता-सावत्री बनती,
कही प्रेरणा बनती कालिदास की,
कही संहार करती महिसासुर की,
समय के साथ संघर्ष करती,
कभी तलवार उठाती लक्ष्मीबाई बनकर,
कभी ईश्वरभक्ति में समर्पित होती मीरा बनकर,
पुरुषो के पुरुषत्व को स्वीकार करती,
सामाजिक मान मर्यादाओ से बंधी,
फिर भी अपनी अस्तित्व की
महानता का पग-पग एहसास दिलाती,
अबला इसको कहने की भूल न करना,
इतिहास की घटनाओं से सबक लेना।


स्वरचित रचना
देवाशीष चक्रवर्ती
अभियांत्रिकी सहायक
आकाशवाणी राउरकेला
पिन--769042
मोबाइल न--9438210546