सत चित का आनंद
श्रीमद
भागवत पुराण में परमात्मा के आनंद स्वरुप की स्तुति की गई है जो जीवन के तीनों ताप
(आधिभौतिक, आधिदैविक और अध्यात्मिक) का समन करने वाला और उत्पत्ति, स्थित और विनाश
का कारक है l
सच्चिदानंद
रूपायै विश्वोत्पत्यादि हेतवे तापत्र् य विनाशायै
जन्म
से मृत्यु की यात्रा ही जीवन है l सामान्यत: मनुष्य ही अधिकतम आयु 100 वर्ष की है| दिनों में 36500 दिन (100×365) और इससे बचपन से युवावस्था के 30 वर्ष कब
बीत जाते हैं, मालूम ही नहीं चलता, इसी प्रकार 70 वर्ष के बाद के 30 वर्ष आराम से
बीतेंगे या नहीं यह भी एक चिंतनीय प्रश्न बना रहता है, तो फिर हमारे पास कर्मशील जीवन
के 40 वर्ष या 14600 दिन (40×365) ही मात्र होते हैं, जिसमें सुख, दुख, खोया,
पाया, मिलने, बिछड़ने इत्यादि के साथ इस अनमोल जीवन की कहानी लिखने को l
जिसकी
नींद लगी हो उसे जगाया जा सकता है किन्तु जिसने आँख बंद कर रखी हो, उसे कैसे जगाया
जा सकता है l मनुष्य जीवन की दुर्लभता और क्षणभंगुरता को ध्यान में रखकर कर्मशील
वर्तमान में जीने का नाम है आनंद l इससे न केवल वर्तमान अपितु अतीत और भविष्य भी सुखद
बनाया जा सकता है, क्योंकि अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य की बुनियाद रखी जाती
है l जीवन के इस नश्वरता का भान ही सत्य की मूल रचना है l
मानसिक
वृत्तियों के नकारात्मक होने से दु:ख और सकारात्मक होने से सुख की अनुभूति होती है
l बोलचाल की भाषा में कहें तो मन की होने पर सुख और विपरीत स्थिति में दुःख की
उत्पत्ति होती है l सुख और दुःख सापेक्ष शब्द है निरपेक्ष नहीं अर्थात् आपको सुख
किसी को दुःख पहुंचाकर या दुःखी देखकर भी हो सकता है, जैसे आपसे वैमनस्यता रखने
वाले पड़ौसी ने एक नई कार ले ली तो उसकी ये सुखद स्थित आपको दुःखी कर सकती है l
आपके
अंतरमन में परिवेशगत विद्यमान विकार आपको परिस्थितिजन्य सुखी या दु:खी कर सकते हैं
परन्तु यर्थात में ये अनुभूति मात्र है l क्योंकि दृष्टि बदलने से सृष्टि बदल जाती
है l इस मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का लेखा जोखा ही “चित” है l हमारी दुनियादारी इसी
मानसिक तरंगों के चक्कर लगाती है l
सुख
और दुःख हमारे जीवन में अतिथियों की तरह आते हैं, सकारात्मक और नकारात्मक वैचारिक तरंगे
परिस्थितियों का निर्माण कर इनकी अनुभूति कराती है, पर इनका स्थाई निवास कहीं नहीं
है और न ही ये हमारे जीवन का मूल उद्देश्य है l ये तो दिन और रात के कालचक्र की
तरह है l धूप और छाँव की भांति हमारे आसपास डोलती रहती है, ये प्रकृति प्रदत्त है,
हमारे जीवन को l पर जीवन की अभिलाषा तो आनंद है l
हम सब आनंद पथ के ही पथिक हैं l जब हम अपना सुख बाँटते हैं तो वह आनन्द बन
जाता है जब हम किसी का दुःख बाँटते हैं तो वहाँ भी आनंद का प्रकाट्य होता है l किसी
ने सुंदर कहा है –
दुःख
तेरा हो, या मेरा हो, दुःख की परिभाषा एक है l
आँसू
तेरे हो या मेरे हों, आंसुओं की भाषा एक है ll
गीता
में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं –
योगस्थ:
कुरु कर्माणि, सड्गंत्यक्त्वा धनञजय l
सिद्धयडसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते
ll 48 अध्याय 2 ll
हे धनंजय ! तुम आसक्ति को त्यागकर सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर
योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मो को कर “समत्व” ही योग कहलाता है l यहाँ समत्व को
और सहजभाव से समझें कि जय, पराजय, सुख या दुख जो भी हमें अपने कर्म की फलश्रुति
में मिले हमारे लिये समान महत्व के हो l यदि हम जीवन के इस परम सत्य को मान ले कि “गर
सुख सदा रहता नहीं तो दुःख का भी अंत है” तो हमारे उदासीन मन को एक नई स्फूर्ति
मिलेगी और फिर हम कर्मशील होकर बढ़ते रहेंगे l इस शंखनाद के साथ कि “हम होंगे
कामयाब, एक दिन पूरा विश्वास, मन में है विश्वास l”
“मैं” एक सीमित दायरे का शब्द है “हम” सीमाओं
को तोड़ता है, “मैं” से “मैं” मिलकर “हम” बनता है और हम जब हमकदम बनते हैं तो वहाँ आनंद
होता है l सबका अपना अपना ही भारत का सपना है l हमने अपने भौतिक परिवेश को बढ़ाने में
केवल “मैं” का ध्यान रखा पर वहाँ केवल सुख है जिसकी सीमा है उसके बाद दुःख भी
होगा, लेकिन यदि “हम” और “हमारे” की नींव मिलकर रखें तो फिर वहाँ आनंद भवन ही
बनेगा l बहिरंग बिखर जायेगा, लेकिन अंतर्गत की पावनता आपको दायित्व और कर्त्तव्य
का ऐसा रंग लगायेगी कि उसकी लालिमा आपके न रहने पर भी आपको कहानी बना देगी l
सरकार संकप्लित है पर भरोसा आपका ही है कि
आइये चलें आनंद पथ पर, आनंद नगर की ओर l
(डॉ. पं.
सुरेन्द्र बिहारी गोस्वामी)