मेरी तुम्हारी नोक – झोंक

मेरी तुम्हारी नोक – झोंक 

तुम कभी भी मुझे समझ नहीं पाई
मेरी भावनाओं को मात्र ठेस ही पहुंचाई तुमने
मुझे कितना प्रेम है तुमसे
इसका तो है अहसास तुम्हे भी
फिर क्यों झूठे मान के लिए तोड़ देती हो तुम ह्रदय मेरा
बरसो से हम जानते है एक दुसरे को
परिचित हो तुम मेरे स्वाभाव से भी
फिर जाने किस बात पर जाती हो चिढ

मेरा हर बात पर चिढचिढाना और करना झिक –झिक
और तुम्हारे मासूम चेहरे पर कर्कशता आ जाना
अब तक तो हो जाना चाहिए था आम बात
पर क्रोध तुम्हारा भी तो नहीं कुछ कम
दे देता है चिंगारी को हवा,और मैं हो जाता हु क्रोधित
तुम्हारे आंसू निकल आते हैं बात – बात पर
मैं फिर हार जाता हु जीतकर
पर तुम्हारा क्रोध तो बर्फ की डली की तरह है
जितना कठोर उतनी ही शीघ्र पिघल जाता है
और तुम्हारे ही तो वचन है मेरे बारे में
की क्रोध मेरा दूध के उबाल जितनी देर ही रहता है
मैं मनाता जाता हूँ हर रोज़ और क्यों तुम मान जाती हो
क्योकी प्रेम तुम्हे भी है मुझसे
भले झूठें लड़ें हम प्रतिदिन
पर नहीं रह सकते एक दुसरे के बिना
फिर मैंने तो बदल लिया अपने आपको पूरा तुम्हारे लिए
सुनो,कुछ तुम भी बदल जाओ मेरे लिए.
                                                                       
                                                                              के.के.बाथम  ”कृष्ण”