डर है एक माँ को
अपने बच्चे को भेजते हुए पाठशाला
कहीं किसी ने न रख दिया
हो बम पाठशाला में
शिक्षक भी हैं डूबे
किसी सोच में
कि कितने स्वप्न हैं
बच्चों की आँखों में
कहीं कोई न पकड़ा दे
इन बच्चों के हांथों में बंदूक
और सिखा दे चलाना,
कहीं मासूमों का जीवन न बिगड़ जाए
डर है बम बनाने वाले
को कहीं ये उसके हांथ में न फट जाए
डर है एक भूखे पक्षी
को कहीं कोई शिकारी न मार दे उसे गोली,
दो निवाले के लिए, कहीं
उसके बच्चे भूखे न मर जाएं
डर है शेर को कहीं वो
इतिहास न बन जाए,
डर है शिकारी को भी
कहीं वो स्वयं शिकार न हो जाए,
डर है फुटपाथ पर
सोते उस वृद्ध को,
कहीं कोई गाड़ी
फुटपाथ पर न चढ़ जाए
डर है धरती को कहीं
वो खून से लथपथ न हो जाए
डर है आसमान को कोई
उसके तारे न तोड़ ले जाए
डर है सूरज को कि
उसकी तेज न कम हो जाए
डर है चाँद को कहीं
उस पर न लोग बस जाएं
डर है समुद्र को
कहीं वो रेगिस्तान न बन जाए,
डर है हम सबको कहीं
ये हथियार बनाकर
प्रयोग हम पर ही न
हो जाए
डर है भीड़ को कहीं
वो एकांत न हो जाए
डर है शोर को कहीं
वो सन्नाटा न हो जाए l
(के. के. बाथम
‘कृष्ण’)
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