पोस्टर आधारित कथा लेखन प्रतियोगिता” (दितीय पुरस्कार विजेता)
“हिन्दी वर्ग”
“आशा एक संघर्ष”
“कुछ हादसे ऐसे होते हैं,
पर जिन्दा नहीं रहता .”
कहानी
है शहर से लगे हुये एक गाँव की गाँव अभी पूर्ण रूप से विकसित तो नहीं हुआ है,
गाँव
के सारे लोगों में खूब साम-जस्य सुख-दुख में सब साथ खड़े रहते हैं l उसी गाँव के एक निर्धन परिवार की बेटी
आशा.... खूब चंचल और सभी की मदद के लिए हमेशा तैयार एक दिन भी न दिखे तो सभी
पूंछने चले आते आशा ठीक है ना... बाबूजी थोड़ा बुखार आ गया था और कुछ नहीं .
अरे बेटा तुम नहीं आई तो किसी ने पेपर पढ़कर नहीं सुनाया .
कल आ जाऊँगी दोनों दिन के पेपर पढ़ दूंगी .
आशा की माँ ने पढाई के साथ वह सब कुछ भी सिखाया जो एक अच्छे
संस्कारी परिवारों में देखने को मिलता है .
धीरे-धीरे समय गुजरता रहा आशा अब बड़ी हो गई, घर वालो को
उसकी शादी की चिन्ता संताने लगी एक दिन आशा की माँ की सहेली जो अक्सर उसके घर आती
थी बोली बुरा न मानो तो एक बात कहूँ ?
हाँ बोलो..... क्या में आशा को अपनी बहु बना लूँ ?
तुम्हारा मतलब रवी से आशा का ब्याह....
हाँ.... ये तो बहुत अच्छा रहेगा पर हमारे पास देने के लिए
कुछ नहीं हैं .
अरे हमें एसी संस्कारी बहु मिल जाये बस यही काफी है l
रवि और आशा का ब्याह हो गया.... रवि शहर में एक प्राइवेट
कंपनी में नौकरी करता था, दोनों में खूब प्रेम था... जब तक रवि घर नहीं आ जाता वह
खिड़की पर टक टकी लगाये देखती रहती .
कुछ दिनों बाद रवि की कंपनी में हड़ताल हो गई न तो जतन रवि
को नौकरी से निकाल दिया गया,
रवि लगातार सभी जगह अपनी नौकरी के लिए प्रयास करता रहा पर
उसे सफलता नहीं मिली, आर्थिक परेशानियाँ बढ़ने लगी...
एक दिन आशा ने रवि से बोला की पास ही एक स्कूल में शिक्षिका
की नौकरी निकली है अगर तुम्हें बुरा न लगे तो मैं ज्वाइन कर लूँ पहले तो रवि ने
मना कर दिया लेकिन बाद में समझाने पर मान गया .
खैर किसी तरह घर की गाड़ी चल पड़ी लेकिन बहुत दिनों तक रवि को
कोई काम नहीं मिला, वह अवसाद में धिर गया और गलत संगत में पड़कर शराब पीने लगा...
उसके व्यवहार में भी परिवर्तन आ गया.... आये दिन घर में नोंक-झोंक शुरू हो गई,
तुम्हारे घर वालो ने दहेज़ में कुछ नहीं दिया... कुछ दिया होता तो कुछ घंघा जमा
लेता... कभी-कभी इतना उग्र हो जाता की उसको घक्का मर देता....
पड़ोसी अक्सर उसे समझाता की ऐसा नहीं करना चाहिए....
अरे घक्का ही तो मारा है... अरे यह भी एक तरह की हिंसा ही
है जाओ मुझे समझाओं अपना काम करो.... आशा भी हमेशा सहती रही और कभी चेहरे पर शिकन
नहीं आने दी... पर एक दिन दो हद ही हो गई आशा स्कूल से देर से आई तो रवि चिल्ला
पड़ा .
आजकल तुम्हारा घर में दिल कहीँ और ???
आशा अवाक रह गयी रोते हुये अपने कमरे में चली गई और सोचती
रही क्या यह वही रवी है ?
कुछ देर बाद शांत चित्त होकर बाहर आई और बोली मुझे माँ से
मिलने गाँव जाना है l
माँ से मिलने या ???
रवि के इस सवाल ने आशा को अन्दर तक दिला दिया.... आशा अपना
सामान जमाने लगी... रवि भी बड़ाबड़ाता हुआ बाहर निकल गया,
शाम के पांच बजे आशा के जाने के समय रवि भी घर आ गया . नशे
में घुत्त...
आशा तुम नहीं जाओगी... अरे दो दिन के लिए जा रही है माँ की
याद आ रही है, बहुत दिन हो गये माँ का चेहरा नहीं देखा...
माँ का चेहरा या ???
और रवि उसको रोकने के लिए उसे घक्के मारने लगा...
सच मानो माँ की बहुत याद आ रही है .
माँ को चेहरा दिखाना है... तो ले दिखा देना अपनी उस माँ को
यह चेहरा कहते हुए रवि ने आशा के चेहरे पर “ऐसिड’’ फेंफ दी...
आशा बुरी तरह से झुलस गई... पड़ोसी अस्पताल लेकर भागे... रवि
भी बुरी तरह से डर गया... पर आशा ने अपने बयान में पुलिस को अपनी ही लापरवाही से
एसिड गिरने की बात कहके रवि को बचा लिया...
उधर रवि इस बात से आत्मग्लानि से भर गया और एसिड पी कर अपनी
जान दे दी...
आशा बच तो गई लेकिन सब कुछ लुट गया... अब आशा एक परिवार
कल्याण केंद्र से जुड़ गई, और खुद अभिशप्त होते हुए दुसरो के परिवारों को टूटने से
बचाने की सलाह देती... “आदमी कोई भी बुरा नहीं होता – हालात बुरे होते हैं.. टूटते
परिवारों को किसी न किसी तरह से फिर से उन्हें जोड़ने का प्रयास लगातार करती
रहती...”
वास्तव में आशा का जीवन के प्रति संघर्ष टूटते परिवारों में
आशा की एक किरण बन कर आता है .
और अब “आशा एक संघर्ष” न होकर आशा एक अभियान हो गया है जो
टूटते परिवारों को समाज की मुख्य-धारा से जोड़ने के लिए सतत प्रयासरत है .
कथाकार –देवेश पाण्डेय
अभियांत्रिकी सहायक
दूरदर्शन केंद्र भोपाल