आधिकारों के रंग

पोस्टर आधारित कथा लेखन प्रतियोगिता” (प्रथम पुरस्कार विजेता)
हिन्दी वर्ग
आधिकारों के रंग
कथाकार – संजय गुप्ता


आह !
     ठण्डी हवा का एक झोंका, और वह हौले से चित्कार उठी l उसने साड़ी से बड़े ही करीने से अपनी गरदन और पीठ के पीछले हिस्से को ढ़कने का असफल प्रयास तो किया, परन्तु ये बैरन बयार जैसे आज सब कुछ उघाड़ देना चाहती थी l उसकी पीठ और गरदन पर बने ये निशान असल में उसके अंतर्मन  पर अंकित हो चुके थे l

     हाय ! क्या नारी होना अभिशाप है ?

     आज की दौड़ती-भागती जिन्दगी भला एक पहिये पर कहाँ चल पाती है ? 

     उसे अपने विवाह के शुरुआती दिन चलचित्र की तरह आँखों के सामने नाचते से लगे l वाह ! क्या खूब दिन थे वे भी l जैसे सारी कायनात गुलाबी सी हो गई थी l हर तरफ रूमानीयत ही रूमानीयत l लेकिन अच्छा वक्त भी तो बड़ा बेवफ़ा होता है, एक जगह टिक कर रहना उसके स्वभाव में नहीं l इसी घुमक्कड़ स्वभाव के चलते ये अच्छा समय उसकी जिन्दगी से कब धीरे से खिसक लिया, उसे ठीक से याद भी नहीं l
     फिर जिन्दगी ने कठोर धरातल पर जैसे ही अपने कोमल कदम रखे, नित-नई समस्याओं ने अपना सिर उठाना शुरू किया l जिस आमदनी में दो लोगों का गुजारा ही बमुशिकल चल पाता हो, वहाँ तीसरे की आहट ने खुशियों से ज्यादा समस्याओं और चिंताओं को बुलावा दे दिया l
     नन्हे जीव की किलकारी जहाँ घर आँगन को महका देती वहीँ चौके में खाली होते डब्बों की खनक उसे दबाने का प्रयास करती मालूम होती l
    
इसी कशमकश में एक दिन उसे अपने कालेज के दिनों के प्रोफेसर मिल गये l

-    आजकल कहाँ हो ? शीला l इतने साल कभी कालेज फिर से आई भी नहीं ? न, कोई पता ना ठिकाना और ना कोई खैर खबर ?
-    सर, मेरे पति इसी शहर के एक कार्यालय में पोस्टेड है l
-    अरे ! बहुत अच्छी बात है, क्या करते है वे ?
-    सर, वो श्यामला हिल्स पर रीजनल कालेज में भृत्य हैं l
-    और तुम ?
-    सर मेरी लाड़ली अभी एक साल की हुई है और मैं अपने आप को इसी के लाड़-प्यार में व्यस्त रख रही हूँ l
-    शीला बेटी, मेरी मानो तो इस मंहगाई के दौरे में तुम्हें भी अपने पति का घर चलाने में हाथ बँटाना चाहिये l तुम जैसी होनहार पोस्ट गेजुएट महिला को आसानी से कहीं भी नौकरी मिल सकती है l तुम कहो तो मैं अपने परिचय में बात करूँ l
-    सर ! मैं “इनसे” पूछकर बताऊगी l आप भी कभी घर आईये ना !
    
पति महोदय तो जैसे इसी के इंतजार में थे l उन्होंने शीला को नौकरी के लिए तुरंत “हाँ’’ कर दी l
     शीला के प्रोफेसर सा. ने उसे अपनी जान-पहचान के चलते अच्छे से कालेज में केजुअल लैब टेक्निशियन के पद पर काम दिलवा दिया l
     फिर से घर में खुशियाँ लौटने लगी l दो पैसों की आवक तीनों सदस्यों के मध्य एक खुशनुमा पुल का निर्माण करने लगी l छुटकी को शीला रोजाना कालेज जाते समय एक झुला घर में छोड़ देती और शाम को रास्ते में लेते हुए घर आ जाती l
     लगभग छ: महीने हुए, कि कालेज में प्रेक्टिकल परीक्षाओं का दौर शुरू हुआ l
     आज शीला की लैब में भी प्रेक्टिकल था l एक्सटर्नल महोदय विदिशा से आने वाले थे l पता नहीं कुछ मसरूफियत के चलते परीक्षक सर लगभग दोपहर बाद तीन बजे पहुंचेl उसके बाद दो-दो छात्र-छात्राओं को प्रेक्टिकल और वाय-वा के लिए बुलाया जाने लगाl लेकिन छात्रों की संख्या ज्यादा होने से शाम के 7 बज गयेl इधर छुटकी भी झुलाघर में माँ के वियोग में बिलखने लगी, उधर शीला के पति घर में उन दोनों को ना पाकर घबरा से गयेl तुरंत उन्होंने अपनी साईकिल उठाई और झुलाघर की ओर निकल पड़ेl उनकी छुटकी जो अभी तक हल्की सी सिसकिया ही ले रही थी, पापा को देखते ही गला फाड़कर रोने लगीl दौड़कर वह अपने पापा के पैरों में लिपट गईl
     छुटकी का इस प्रकार, कृन्दन उसके पापा की क्रोधाग्नि पर आहुति के घी की तरह पड़ने लगाl
     एक तरफ उन्हें शीला और छुटकी की चिन्ता,
 अपना आर्थिक रूप से असहाय होना और
पेट की भूख.
 उनके मस्तिष्क को जैसे अजीब से भय, क्रोध और बेचारगी का मिश्रित भाव झंझोड़ने लगाl छुटकी को साइकिल पर बैठाकर वे कालेज की तरफ चल दियेl तब तक शीला ने भी लैब का सारा काम निपटाकर एक्सटर्नल परीक्षक महोदय को मुस्कुराहट के साथ विदा कियाl हालांकि अन्दर ही अन्दर वो छुटकी का कातर चेहरा अपनी आँखों पर आने से बार-बार रोक रही थीl ठीक उसी समय शीला के पतिदेव छुटकी को लेकर कालेज में दाखिल हुएl यह एक संयोग ही था कि पतिदेव का लैब में दाखिल होना और शीला का परीक्षक महोदय को मुस्करा कर विदा करना लगभग एक साथ घटित हुआl बस फिर क्या था, गुस्से और बेचारगी की एक अजीब सी छटपटाहट में पतिदेव को अपने आसपास की परिस्थितियां भी जैसे अदृश्य लगने लगीl उन्हें लगा कि जैसे शीला इस देरी पर शर्मिंदा ना होकर मुस्करा कैसे सकती है ?
     क्या वह छुटकी की रुलाई भी भूल गई?
     क्या उसके लिए अपना काम घर से ज्यादा महत्वपूर्ण लगने लगा ?
     ये सारे झंझावातो में डूबते उतरते पतिदेव की आँखों में लाल डोरे खींच आये l
-     तड़ाक ....!
     एक झन्नाटेदार तमाचा, और शीला का मुस्कराता चेहरा एकदम लाल पड़ गया l
     सभी छात्र छात्राएं, कालेज के प्रोफेसर और एक्सटर्नल महोदय एकदम अवाक रह गये l
     इतनी कर्मनिष्ठ महिला और ये बर्ताव !
     लेकिन पति-पत्नि के बीच का आंतरिक मसला मान किसी ने कुछ कहा नहीं l बेचारी शीला भी पल्लु से अपना गाल सहलाती हुई, धीरे से साइकिल के पीछे कैरियर पर बैठ गई l
     जिस ज्वालामुखी का शुरूआती रिसाव कालेज की लैब में थप्पड़ की शक्ल में निकला l घर पहुंचते ही उसने अपना विकराल रूप दिखाया l शीला के शरीर पर लाल-हरे से निशान, उस ज्वालामुखी के रौद्र रूप का साक्षी बन उभर गये l
     शीला रात भर बिलखती रही, उसके कंठ में एक निवाला ना उतरा l वो यह तय नहीं कर पा रही थी कि आखिर उसकी गलती क्या थी ? उसने हर संभव कोशिश की कि वह जल्दी से अपना काम निपटा कर घर पहुंचे, परन्तु हालात ही कुछ ऐसे बनते गये कि वह असहाय हो, केवल यंत्रवत सी काम निपटाती रही थी l
     दुसरे दिन फिर से वही रूटीन l अपनी साड़ी के पल्लू से जैसे-तैसे अपने बदन पर पड़े निशानों को ढंकने का असफल प्रयास करते हुए l
     पतिदेव भी आज अपने पर लानत भेजते हुए अपने कालेज पहुंचे l स्टाफ रूम के बाहर वो अपने स्टूल पर धड़ाम से बैठ गया l अन्दर से उसे दो प्रोफेसरों की हल्की-हल्की आवाजे सुनाई आने लगी l शायद प्रोफेसर गुप्ता के घर किसी बात पर कल कहा सुनी हो गई थी l वे अपने मन की बात प्रोफेसर वर्मा के सामने उंडेल रहे थे l
     प्रोफेसर वर्मा ने पूरी बात सुनकर, प्रोफेसर गुप्ता को केवल इतना ही कहाँ –
     गुप्ताजी औरत और मर्द एक दूसरे के पूरक है l दोनों को एक ही परमसत्ता ने इस लोक में भेजा है और औरतें भी वही अधिकार पाने की प्रबल दावेदार हैं जो हम मर्दों को मिले हैं l पत्नी का अपमान कर हम उस जगत निर्मात्ता भगवान की तौहीन कर रहें हैं l
     शीला के पति ने थोड़ा सी गरदन परदें के पास की, और ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगा l
-    परन्तु मैंने तो अपनी पत्नि पर हाथ उठाया ही नहीं केवल हल्का सा धक्का ही मारा – गुप्ताजी ने सफाई दी l
-    हिंसा के कई रूप होते हैं गुप्ताजी – वर्माजी ने समझाइश दी l
-    लेकिन वर्माजी ! ये तो हर घर की कहानी हैं – गुप्ताजी ने नया पैतरा अपने बचाव में खेला l
-    गुप्ताजी ज्यादा लोग गलती करें तो वह “सही’’ नहीं हो जाती l जिस औरत ने आपके खातिर अपना घर, माँ-बाप, यहाँ तक नाम और सरनेम भी छोड़ दिया, जबकि आप के घर में उसकी नेम प्लेट तक नहीं l इतना निस्वार्थ समर्पण क्या तुम कहीं और पा सकते हो? वर्माजी समझा तो गुप्ताजी को रहे थे परन्तु – आंसू शीला के पति के गालों को गीला कर रहे थे l आज पश्चाताय की आग में उसका चरित्र निखर कर कुंदन बन गया l
     तुरंत स्टाफ रूम में दौड़ते हुए वह प्रोफेसर वर्मा के कदमों में गिर पड़ा l
     वर्माजी ने उसे उठाया और गले से लगाते हुए बोले – हम सब एक ही पिता की संतान है और “हिंसा मुक्त जीवन सबका अधिकार है”

एक ही साँस में शीला के पति ने भी कल की दुर्घटना वर्माजी के सामने उगल दी l

प्रोफेसर वर्मा ने उसी शांत स्वभाव के साथ कहा – मेरे कदमों में नहीं, अपनी पत्नि से माफ़ी मांगो l
     उस दिन घर पंहुच कर अपने पश्चाताप की अश्रुधारा से शीला का घर-आँगन सौंधी सी महक से खुशनुमा हो गया l
     आज उसे अपनी गृहस्थी परिपूर्ण लगी l उसके निस्वार्थ त्याग को जैसे एक सही ठौर मिल गया l
     सचमुच – प्यार और समर्पण सबसे बड़ा मलहम होता है और हिंसा मुक्त जीवन सबका अधिकार है l

कथाकार – संजय गुप्ता
अभियांत्रिकी सहायक
दूरदर्शन केंद्र भोपाल